Rani Laxmi Bai Story: बिठूर के महल में कुछ बच्चे किले की लड़ाई का खेल खेल रहे हैं। उसमें नाना और दूसरे बच्चे अपना-अपना दिमाग लगाकर दुश्मन के किले पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं, पर उन्हें कामयाबी नहीं मिलती।
तभी छोटी सी, चंचल बच्ची मनु जो उनके साथ ही खेल रही है, इशारे से कहती है, “अरे, किले को जीतने के लिए तो इधर से चढ़ाई करनी होगी।”
देखकर दूसरे बच्चे हैरान हैं, पर मनु की सलाह उन्हें माननी पड़ती है। बच्चों के साथ-साथ बड़े भी यह खेल देख रहे हैं। सबके मुँह से एक साथ निकलता है, “अरे, मनु तो बड़ी होशियार है।”
फिर कुछ दिन बाद बच्चों को घुड़वारी सिखाई जाती है। बच्चे अपने- अपने घोड़े को दौड़ते हुए महल की ओर आ रहे हैं। तभी नाना के घोड़े को ठोकर लगती है। नाना गिर पड़ता है। मनु उसी समय अपना घोड़ा रोकती है। और नाना को अपने साथ ही घोड़े पर बैठा लेती है। फिर घायल नाना को साथ लेकर महल में पहुँच जाती है।
जिसने भी यह दृश्य देखा, हैरान हो गया, “अरे, यह छोटी सी बालिका तो बड़ी ही समझदार और बुद्धिमान है।”
यही छोटी सी बालिका मनुबाई बड़ी होकर लक्ष्मीबाई कहलाई और चारों ओर उसकी वीरता और शौर्य की कहानियाँ फैलने लगीं। उनके पिता मोरोपंत पेशवाओं के बड़े विश्वासपात्र थे। जब अंग्रेजों ने बाजीराव पेशवा को गद्दी से उतारकर चिमनाजी अप्पा को गद्दी पर बिठाकर
मनमानी करनी चाही, तब स्वाभिमानी चिमनाजी मोरोपंत को साथ लेकर काशी आ गए। काशी में ही 19 नवंबर, 1835 को लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। अभी वह चार वर्ष की ही थी कि उसकी माता भागीरथीबाई का देहांत हो गया। मोरोपंत बेटी को लेकर बाजीराव के पास बिठूर आ गए। मनुबाई सुंदर, चंचल और बुद्धिमती थी। वह दिन भर नाना साहब के साथ खेलती। नाना साहब बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र थे।
बहुत जल्दी मनुबाई ने घोड़ा दौड़ाना, तीर और तलवार चलाना सीख लिया। वह वीर थी, बुद्धिमती और सुंदर थी। झाँसी के राजा गंगाधर राव ने मनुबाई की बहुत प्रशंसा सुनी। उन्होंने मनुबाई से विवाह की इच्छा प्रकट की। अब मनुबाई झाँसी की रानी बन गई। उनका नाम हो गया लक्ष्मीबाई।
गंगाधर राव लक्ष्मीबाई से बहुत प्रेम करते थे। उन्हीं से पूछकर राजकाज चलाते थे। लक्ष्मीबाई हमेशा प्रजा के हित की बात सोचती थीं इसलिए झाँसी की प्रजा रानी को बेहद चाहती थी। कुछ समय बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। घर-घर में खुशियाँ मनाई गईं क्योंकि अब राज्य का वारिस पैदा हो हो गया था और झाँसी अंग्रेजों के चंगुल में जाने से बच गई थी।
पर यह खुशी थोड़े ही दिन रही। तीन महीने भी पूरे नहीं हो पाए थे कि बच्चा चल बसा। इस दुख को महाराज गंगाधर राव सहन नहीं कर सके। उन्होंने खाट पकड़ ली। अंत समय समीप था। हाँ, मरने से पहले उन्होंने दामोदर राव को गोद ले लिया। अंग्रेजों से प्रार्थना की कि दामोदर राव को झाँसी का वारिस स्वीकार कर लिया जाए।
कुछ समय बाद गंगाधर राव गुजर गए। अभी लक्ष्मीबाई यह दुख सहन भी न कर पाई थीं कि बड़े लाट साहब का आदेश आया, “सरकार दामोदर राव को महाराज गंगाधर राव का वारिस नहीं मानती। झाँसी लावारिस है इसलिए उसे अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा।” साथ ही रानी को साठ हजार रुपए की पेंशन बाँध देने और किला छोड़कर चले जाने का आदेश दिया गया।

यह सुनकर रानी लक्ष्मीबाई छटपटा उठीं। उन्होंने निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो, वे अपनी झाँसी नहीं छोड़ेंगी। उन्होंने फिर से तलवार चलाने और घुड़सवारी करने का अभ्यास शुरू कर दिया। राज्य की बागडोर और अधिक मजबूती से सँभाल ली। प्रजा की भलाई के लिए बहुत सी योजनाएँ। शुरू कीं। उधर सेना की शक्ति बढ़ा दी गई।
लड़ाई के लिए बारूद और तोपखाने का इंतजाम किया गया। रानी खुद मर्दाने वेश में सेना का निरीक्षण करतीं तथा अपने सैनिकों में जोश भरा करती थीं। चाहे जो भी हो, वे जान पर खेलकर भी अपनी झाँसी की रक्षा करेंगी उनका यह अटूट संकल्प था।
यह वही समय था जब सारे देश में 1857 के स्वाधीनता संग्राम के विद्रोह की लहर उमड़ रही थी। झाँसी की रानी भी इस संग्राम में कूद पड़ी। झाँसी को अंग्रेजों से बचाकर रखना और विद्रोह में मदद देने का जिम्मा
उनका था। वे पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थीं तथा अंग्रेजों की दमन नीति का विरोध कर रही थीं। इसी बीच सदाशिव राव ने खुद को झाँसी की गद्दी का हकदार बताकर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने उसे सबक सिखाया। अभी वे साँस भी न ले पाई थीं कि ओरछा के दीवान ने हजारों सैनिकों को साथ लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई बहादुरी से लड़ीं और उन्होंने विजय प्राप्त की।
अब अंग्रेजों का ध्यान भी झाँसी की ओर गया। सर ह्यूरोज के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने आकर झाँसी को घेर लिया। झाँसी की रानी ने अपनी सेना की कमान खुद सँभाली। वे रोज रात भर जागकर खुद किले की व्यवस्था को देखत, सैनिकों का उत्साह भरतीं। युद्ध आरंभ हुआ। रानी लक्ष्मीबाई बहुत हिम्मत से लड़ीं। उनके सैनिकों ने भी जान की बाजी लगा दी। लेकिन विशाल अंग्रेजी सेना का मुकाबला करना आसान नहीं था। जब तक किले की तोपें गरजती रहीं, अंग्रेजों की आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं पड़ी। लेकिन रानी का विश्वासपात्र तोपची गुलाम गौस खाँ मारा गया था। बारूदघर में अंग्रेजों का गोला आ पड़ा तो सैकड़ों सिपाही मारे गए। रानी लक्ष्मीबाई दोनों हाथों में तलवार लेकर रणचंडी की तरह युद्ध कर रही थीं।
बारह दिन बीत चुके थे। अब लड़ाई को जारी रखना असंभव था। रानी ने झाँसी को छोड़ने की बजाय वहीं प्राण दे देने का निश्चय किया। लेकिन सरदारों ने समझाया, “स्वाधीनता के युद्ध के लिए आपका बच निकला जरूरी है। अब तो सारे भारत की स्वाधीनता के लिए युद्ध करना होगा।”
आखिर रानी अपने घोड़े पर बैठकर निकल भाग और कालपी पहुँच गई। नाना साहब के भाई राव साहब किले में थे। उन्होंने रानी का स्वागत किया। फिर से लड़ाई की योजना बनाई गई। नई मोर्चाबंदी की गई, पर राव साहब सोचते, ‘मैं एक स्त्री की अधीनता क्यों स्वीकार करूँ ?’
रानी लक्ष्मीबाई सेना की मोर्चाबंदी को मजबूत करना चाहती थीं, पर राव साहब ने उनकी बात अनसुनी कर दी। इसी कारण जब अंग्रेजों ने कालपी पर आक्रमण किया तो रानी लक्ष्मीबाई ने अपने मोर्चे पर तो उनके छक्के छुड़ा दिए, लेकिन राव साहब वाला मोर्चा टूट गया।
कालपी छोड़कर सभी विद्रोहियों ने अब गोपालपुर में आश्रय लिया। यहीं तात्या टोपे भी आकर इस दल में मिल गए थे। सब मिलकर भी तय नहीं कर पा रहे थे कि अब अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई कैसे जारी रखी जाए?
रानी लक्ष्मीबाई बोलीं, “ग्वालियर यहाँ से थोड़ी दूर है। ग्वालियर का महाराज जियाजी राव भले ही अंग्रेजों का भक्त है, लेकिन उसकी सेना जरूर हमारा साथ देगी।”
सबने मिलकर ग्वालियर की ओर कूच कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने सिर्फ अपने ढाई सौ विश्वासपात्र सैनिकों को लिया और सिंहनी की तरह टूट पड़ीं। जियाजी राव को भागना पड़ा। ग्वालियर की अधिकांश सेना रानी के साथ मिल गई और रानी लक्ष्मीबाई का जय-जयकार करने लगी।
ग्वालियर का किला हाथ में आ गया तो नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया। रानी बार-बार आग्रह करती थीं कि अब किले और सेना का ठीक से प्रबंध किया जाए। लेकिन पेशवा होकर नाना साहब राग-रंग में सब भूल गए। उनके सैनिकों का भी यही हाल था। रानी लक्ष्मीबाई की बात किसी ने नहीं सुनी।
जल्दी ही अंग्रेजों ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। राव साहब ने सोचा, ‘रानी लक्ष्मीबाई स्त्री हैं, वह भला सेना का संचालन क्या कर पाएँगी ?’
तो भी रानी लक्ष्मीबाई पूरी सतर्कता से सब कुछ देख रही थीं। जाँच और परख रही थीं। रानी ने ऐसी व्यूह रचना की थी कि ह्यूरोज के लिए आगे बढ़ना असंभव हो गया। रानी के वफादार सैनिकों ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए।
यह देखकर अंग्रेजी सेना दूसरे मोर्चे की ओर बढ़ी, पर रानी ने उसका रास्ता भी जाम कर दिया। उस दिन अंग्रेजी सेना को बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी। जीत का सेहरा रानी के सिर पर बँधा, पर उनका प्यारा घोड़ा बुरी तरह घायल हो चुका था।
दूसरे दिन भी भीषण युद्ध हुआ। रानी ने अपनी पीठ पर बालक दामोदर राव को बाँधा हुआ था। अंग्रेज गोलियाँ दाग रहे थे, लेकिन रानी तलवार थामे घोड़ा दौड़ाती हुई आगे निकल आईं। साथ में उनकी विश्वासपात्र सहेलियाँ भी थीं। उन्होंने अंग्रेजों की मोर्चेबंदी को तोड़ दिया।
पेशवा की फौज के पाँव उखड़ चुके थे। लेकिन रानी अंग्रेजों के व्यूह को काटते हुए आगे निकलती गईं। उन्होंने अपने बचाव के लिए एक सिपाही पर प्रहार किया। इतने में उन्हें अपनी प्रिय सखी की चीख सुनाई दी।
उन्होंने वार करने वाले अंग्रेज का सिर उड़ा दिया और घोड़ा दौड़ाती चली गईं। सामने नाला था। लेकिन रानी का प्रिय घोड़ा तो खत्म हो गया था। यह नया घोड़ा था। नाले को देखकर अड़ गया।
अंग्रेजों ने आकर रानी लक्ष्मीबाई को घेर लिया। रानी के सिर पर तलवार का वार किया गया। लेकिन रानी ने मरते-मरते भी उस अंग्रेज सवार को खत्म कर दिया।
रानी के विश्वासपात्र अंगरक्षक रामचंद्र राव ने पास की कुटिया में रानी का शव रखा और चिता में आग लगा दी। महान् वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई ने
रणक्षेत्र में लड़ते हुए एक सच्चे वीर जैसी मृत्यु पाई। उस समय उनकी आयु केवल 23 साल थी, लेकिन उनका नाम देश के बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़ चुका था। वे अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष और विद्रोह की प्रतीक बन गईं।
उनमें इतना साहस और वीरता थी कि स्वयं अंग्रेजों ने उनकी बहुत प्रशंसा की थी। ह्यूरोज ने रानी की प्रशंसा करते हुए लिखा, ‘महारानी का उच्च कुल, आश्रितों और सिपाहियों के प्रति उनकी असीम उदारता और कठिन से कठिन समय में भी अडिग धीरज, उनके इन गुणों ने रानी को हमारा एक अजेय प्रतिद्वंद्वी बना दिया था।
वह शत्रु दल की सबसे बहादुर और सर्वश्रेष्ठ सेनानायिका थीं।’
भारत के स्वाधीनता संग्राम में उन वीरांगनाओं का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा, जिन्होंने देश के लिए हँसते-हँसते अपनी जान की बाजी लगा दी।
उन वीर स्त्रियों में सबसे महान थीं, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। इस महान रानी के बलिदान को याद करके कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान ने बड़े ओजपूर्ण शब्दों में लिखा है-
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
Bahut badhiya