Madan Lal Dhingra: बाईस साल की छोटी सी उम्र एक मासूम सा नौजवान समय 1 जुलाई, 1909 1 स्थान : लंदन का इंपीरियल इंस्टीट्यूट। यहाँ एक समारोह में कर्जन वायली भी शामिल हैं। लोग खुश हैं। एक-दूसरे से खुशी से मिल रहे हैं। खा-पी रहे हैं।
अचानक दनादन गोलियाँ चलने की आवाज ठाँय ठाँय- 1 ठाँय… ठाँय ! एक के बाद एक पाँच गोलियाँ। भगदड़ मच गई है। कर्जन वायली का खून से लथपथ शव जमीन पर पड़ा है। एक पारसी डॉक्टर ने शव के पास आने की कोशिश की। झट से छठी गोली डाक्टर के सीने से उतर गई है।…
हाँ, यह बाईस साल का अकसर चुप्पा सा रहने वाला मासूम सा नौजवान मदनलाल ढींगरा था,
जिसने खुदीराम बोस, कन्हाईलाल दत्त और सत्येंद्रनाथ बसु को फाँसी पर चढ़ाने वाले विलियम कर्जन वायली को इस तरह सरेआम गोलियों से भूनकर अपने देशभक्त नौजवान साथियों की मौत का बदला ‘अपने ढंग से लिया था।
उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था, बल्कि चेहरे पर परम संतोष था, मानो उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई हो। वह समय ही ऐसा था। लोगों में,
खासकर नवयुवकों में देश पर मर मिटने की इच्छा जोर मार रही थी। फिजा में ही क्रांति की गंध फैली हुई थी और देश के नौजवान बड़ी तेजी से इस राह पर बढ़ रहे थे।
देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराना है, बस एक यही लक्ष्य उन्हें दिखाई पड़ता था, जिस पर वे बेहिचक बढ़ रहे थे। मदनलाल ढींगरा का जन्म सन् 1887 में अमृतसर के एक जाने-माने खत्री परिवार में हुआ। इनके पिता जाने-माने शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ
शल्य चिकित्सक थे, जिनकी ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादारी जग-जाहिर थी। इसी राजभक्ति से खुश होकर अंग्रेजों ने उन्हें ‘राय साहब’ का खिताब भी दिया था। मदनलाल ढींगरा अपने सात भाइयों में छठे नंबर पर थे।
पिता तो डॉक्टर थे, पर बेटों ने अन्य खत्री परिवारों की तरह व्यवसाय को ही अपनाया था। मदनलाल ढींगरा के एक बड़े भाई लंदन में व्यापार सिलसिले जाते रहते थे और वहाँ अकसर रहते भी थे।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मदनलाल ढींगरा को भी अपने इसी भाई के पास भेजा गया। वहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया, और कर्जन वायली वाले हत्याकांड को जब अंजाम दिया गया, तब भी मदनलाल ढींगरा उसी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे थे।

लंदन में उन दिनों ‘इंडिया हाउस‘ क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था।
इसकी स्थापना श्यामजी कृष्ण वर्मा और दामोदर विनायक सावरकर ने की थी। यह भारतीय छात्रों के आपसी संपर्क और मिलने-जुलने का एक प्रमुख स्थान था। भारत से जो भी छात्र लंदन पढ़ने के लिए जाते थे,
श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर की कोशिश होती कि उनमें से हर छात्र, खासकर नवयुवक लोग इंडिया हाउस से जुड़ें। श्यामजी कृष्ण वर्मा उन दिनों अपने यहाँ आए नवयुवकों में देशभक्ति की ऐसी भावना पैदा कर देते थे कि नवयुवक मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए प्राणों की आहुति देने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाते थे।
मदनलाल ढींगरा का परिवार अंग्रेज भक्त माना जाता था। लिहाजा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण लंदन पहुँचने पर मदनलाल ढींगरा इंडिया हाउस से दूर ही रहते थे।
हाँ, कभी-कभार वे वहाँ जाते थे और सन् 1908 में एक बार लगभग छह महीने के लिए वहाँ रहे भी थे। पर वे ज्यादा बोलते नहीं थे, अकसर चुप ही रहे थे। सन् 1909 में इंडिया हाउस में होने वाली बैठकों में वे भाग लेते थे।
अंग्रेज सरकार इंडिया हाउस को शक की नजर से देखती थी और वहाँ की हलचलों की जासूसी भी होती रहती थी। इसी कारण उस समय पंजाब के गवर्नर कर्नल विलियम कर्जन वायली ने भी मदनलाल ढींगरा को सख्ती से समझाया था कि वह इंडिया हाउस से कोई संपर्क न रखे।
मदनलाल ढींगरा अंदर ही अंदर सुलगकर रह गए थे। पर तभी से कर्नल वायली के प्रति उनके मन में एक खुंदक पलने लगी थी। मदनलाल ढींगरा का छोटा भाई भजनलाल भी इन दिनों यानी 1909 में आगे की पढ़ाई के लिए लंदन आ गया था। वह तो मानो मदनलाल ढींगरा के लिए एक जासूस ही बन गया।
उनकी हर गतिविधि की खबर वह अमृतसर पहुँचाता रहता, जिससे घर वाले बराबर मदनलाल ढींगरा को पढ़ाई पर ही ध्यान देने की हिदायतें देते रहते। साथ ही किसी फसाद में न उलझने की चेतावनी देते रहते
पर मदनलाल ढींगरा का मन देशभक्ति के जिस रास्ते पर चल पड़ा था, अब उसे वहाँ से कोई नहीं मोड़ सकता था। अब वे बाकायदा सावरकर की क्रांतिकारी संस्था ‘अभिनव भारत’ के सदस्य बन गए थे। इसी संस्था के
द्वारा उन्हें जो पहला काम सौंपा गया था, वह कर्जन वायली का सफाया करना। आखिर वह दिन भी आ पहुँचा, जब उन्हें अपने सौंपे गए काम को पूरा करना था। यानी 1 जुलाई, 1909 का दिन।
कर्नल विलियम कर्जन वायली लंदन के इंपीरियल इंस्टीट्यूट में एक समारोह में भाग लेने आए थे। मदनलाल ढींगरा भी इस समारोह में पहुँच गए। समारोह की समाप्ति पर जब कर्जन वायली चलने को हुए,
तो मदनलाल ढींगरा ने एकदम पास आकर उन पर दनादन पाँच गोलियाँ चला दीं। कर्जन वायली तुरंत ढेर हो गए और उनके साथ ही एक डॉक्टर भी, जो उन्हें बचाने आया था।
यह काम पूरा करके मदनलाल ढींगरा के चेहरे पर ऐसी गर्वपूर्ण दीप्ति थी, मानो उन्होंने कोई किला फतह कर लिया हो। मन से वे परम शांत थे। उन्हें पकड़ लिया गया।
इस कारनामे से मानो उन्होंने अंग्रेज सरकार को चेतावनी दी थी कि अब भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेज अपने देश में भी सुरक्षित नहीं है।
इस घटना के तुरंत बाद मदनलाल ढींगरा जैसे क्रांतिकारी देशभक्त के घर वालों की जो प्रतिक्रिया थी, उसे पढ़कर किसी का भी मन आहत और शर्मसार हुए बगैर नहीं रहा सकता।
मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने का प्रयास करने वाले मदनलाल ढींगरा के पिता ने इस घटना की घोर निंदा करते हुए मदनलाल ढींगरा को अपना पुत्र मानने से ही इनकार कर दिया। उनका कहना था कि “उसने मेरे मुँह पर कालिख पोत दी है।”
यह अलग बात है कि आगे आने वाले समय ने पूरी तरह सिद्ध कर दिया है कि कालिख किसने किसके चेहरे पर पोती थी।
ढींगरा के जो भाई लंदन में रहते थे, उन्होंने भी 4 जुलाई को कर्नल वायली के लिए आयोजित एक शोक-सभा में इस घटना की निंदा करते हुए निंदा प्रस्ताव पास करवाना चाहा। सावरकर ने जिनकी प्रेरणा से मदनलाल ढींगरा ने इस घटना को अंजाम दिया था, इसका विरोध करना चाहा। तब एक अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें घूँसा मारा।
सावरकर के मित्र थिरूमल आचार्य पास ही खड़े थे। उन्होंने अपनी लाठी से उस अकड़बाज अंग्रेज अधिकारी पर हमला किया। इस सारे घटनाक्रम के कारण वह निंदा-प्रस्ताव पारित न
हो सका। दूसरी तरफ, इंडिया हाउस में मदनलाल ढींगरा को ‘मातृभूमि का वीर सेवक’ कहकर सम्मान दिया गया। मदनलाल ढींगरा पर लंदन में हत्या का मुकदमा चला और सिर्फ बाईस दिन बाद ही,
उन्हें फाँसी की सजा भी सुना दी गई। फाँसी के लिए 17 अगस्त, 1909 का दिन तय कर दिया गया।
अपने मुकदमे के दौरान वीर क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा ने जो बातें कहीं, वे आगे आने वाले नौजवानों के देशभक्ति के पथ पर दृढ़ता से डटे रहने की प्रेरणा देने वाली थीं। उन्होंने कहा, “हिंदू होने के कारण मैं अनुभव करता हूँ कि मेरे राष्ट्र का दासत्व मेरे ईश्वर का अपमान है। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए किया गया कार्य भगवान कृष्ण के लिए हैं।
मैं न धनी हूँ, न योग्य। इसलिए मेरे जैसा गरीब बेटा माता की मुक्ति की वेदी पर अपने रक्त को छोड़कर अन्य कुछ भेंट नहीं कर सकता। इस कारण मैं अपने को बलि देने के विचार पर प्रसन्न हो रहा हूँ। मेरी हार्दिक प्रार्थना है कि मैं अपनी माता के गर्भ से फिर जन्म लूँ और इसी पुनीत कार्य के लिए मरूँ, जब तक कि मेरा उद्देश्य पूरा न हो जाए और मातृभूमि के हित तथा परमात्मा के गौरव के लिए हमारा देश मुक्त न हो जाए।”
उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका दाह संस्कार हिंदू रीति से हो और उनके सगे भाई उनके शव को स्पर्श भी न करें। पर आनन-फानन में उन्हें 17 अगस्त, 1909 को पेटनविले में फाँसी दे दी गई और जेल की चार दीवारी में ही दफना दिया गया।
श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उनके इस बलिदान को इन भावपूर्ण शब्दों में याद किया, “ढींगरा का बलिदान स्वतंत्रता के लिए है। उन्होंने अकले ही ब्रिटिश भूमि पर खड़े होकर ब्रिटेन के अत्याचार को ललकारा है।” अगस्त में मदनलाल ढींगरा को फाँसी दी गई और लाला हरदयाल, जो स्वयं क्रांतिकारी विचारों के धुनी स्वाधीनता सेनानी थे
और क्रांतिकारियों की भरसक मदद करते थे, सितंबर में ‘वंदेमातरम्’ नामक पत्रिका निकाली। उसका पहला अंक ‘बलिदान अंक’ था। इसमें लाला हरदयाल ने इन शब्दों में ढींगरा को याद किया, “मदनलाल ढींगरा वे वीर थे, जिनके उपास्य शब्दों तथा कृत्यों का हमें शताब्दियों तक सच्चे हृदय से ध्यान करना चाहिए। ढींगरा ने प्राचीनकालीन राजपूतों के समान आचरण
किया।…उन्होंने भारत में अंग्रेजों की प्रभुसत्ता को घातक चोट पहुँचाई है।” भले ही अंग्रेजों ने मदनलाल ढींगरा को उनकी अंतिम इच्छा के विरुद्ध पेटनविले जेल की चारदीवारी में दफन कर दिया, पर क्या वे उनकी मिट्टी से उठने वाली क्रांतिकारी गंध को भी दफना पाए, जिसने आगे आने वाली नौजवान पीढ़ी को उसी रास्ते पर तेजी से अग्रसर होने और आत्मबलिदान करने के लिए प्रेरित किया।
इसी क्रांतिकारी भावना से प्रेरित होकर कितने ही नौजवान मातृभूमि की बलिवेदी पर हँसते-हँसते प्राण न्योछावर कर गए। उन्हीं की बदौलत आज भारत आजाद हुआ और हम आज आजाद हवा में साँस लेते हुए, पूरे विश्व के सामने एक स्वतंत्र देश के रूप में गर्व से सिर उठाए खड़े हैं।