हिन्दी कहानीः मचान पर | Machan Per Story in Hindi 2023

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Last Updated on 09/03/2023 by Editorial Team

मचान पर: हर मनुष्य को नागरिक जीवन की अपेक्षा वन-भ्रमण अधिक रुचिकर लगता है। यद्यपि मनुष्य शुद्ध शाकाहारी है और शिकारी भी नहीं, पर उसे वन्य प्राणियों के बीच जंगल में रहना अधिक आनंदित करता है।

प्रस्तुत हिन्दी कहानी में रात्रि में जंगल के भयावह वातावरण, वृक्ष पर मचान बनाने की प्रक्रिया, मचान पर शेर का आक्रमण और निडरता से परिस्थिति का सामना करना आदि बातों का सजीव एवं मनोरंजक चित्रण किया है।

वह वट वृक्ष बहुत पुराना था। सारे जंगल में वैसा विशाल और गंभीर वृक्ष शायद ही कोई और रहा हो । एक ऊँचे टीले पर साधक तपस्वी की तरह वह अकेला एक पग पर खड़ा था। वन्य वराहों और मस्त हाथियों की तो बिसात ही क्या, बड़ी-बड़ी आँधियाँ और भूकंप भी उसके इस एक पग को विचलित न कर सके थे।

मैं दिन में उसकी शाखा पर बैठा मचान बाँध रहा था। बड़े सवेरे ही जंगल से पाढर के तीन मोटे लट्ठे काट कर लाया था। वे इतने भारी थे कि उन्हें उठाकर पेड़ पर चढ़ाना असंभव जान पड़ा। परंतु जल्दी ही इसका उपाय कर लिया गया।

तीन मज़बूत रस्सियाँ मेरे पास थीं। तीनों के एक-एक सिरे में एक-एक लट्ठा बाँध दिया और रस्सियों के दूसरे सिरों को पकड़कर मैं वृक्ष पर चढ़ गया। एक चिकनी डाल को घिरनी बना मैंने डोर की तरह उन तीनों को एक-एक कर ऊपर खींच लिया और बाद में दो सुदृढ़ शाखाओं में अच्छी तरह जमा दिया।

इससे मेरी मचान के लिए पाँच हाथ चौड़ा छह हाथ लंबा एक त्रिभुज तैयार हो गया। इस त्रिभुज पर कितने ही मजबूत लट्ठे बिठाकर मैंने एक विश्राम करने योग्य पक्का धरातल तैयार कर लिया और उस पर एक-एक फुट ऊँचे पत्ते और कुशा घास बिछाकर एक कोमल और गुदगुदा बिस्तर भी बिछा डाला ।

जिससे मगर मचान तैयार थी। परंतु अभिलाषा और भी आगे बढ़ रही थी। मचान को कुटिया का रूप दिया जाने लगा । इसके लिए बाँसों की आवश्यकता पड़ी। हाथ-पाँव थक चुके थे। शरीर विश्राम माँग रहा था मगर अभी विश्राम कहाँ? वृक्ष से उतरकर एक बार फिर जंगल में पहुँचा।

देखा वहाँ एक ही पहर में भारी परिवर्तन हो चुका है। बाँस काटने योग्य अनुकूल वातावरण नहीं दिखाई पड़ रहा।

कहाँ वह चहल-पहल से भरी हुई प्रातःकाल की वनभूमि, कहाँ यह निस्तब्धता से भरा हुआ तीसरे पहर का महारण्य । ऐसे संदिग्ध एकांत में बाँस काटने के लिए कुल्हाड़ी चलाने में भी हिचक हो रही है।

केवल भय या संशय के कारण ही नहीं, ऐसा लग रहा है, जैसे मैं वनवासियों की किसी सर्वमान्य प्रथा के उल्लंघन करने का महापराध करने जा रहा हूँ। जानता हूँ, यह तीसरा पहर वनचरों के विश्राम का समय है। इस समय सहस्त्रों पखेरू, द्रुम शाखाओं और निकुंजों में पड़े दिवानिद्रा का आनंद ले रहे हैं।

सहस्रों वनचर शीतल झाड़ियों और छिपे ‘आवासीय-स्थानों में पड़े विश्राम कर रहे हैं। वनवासियों की चिर पुरातन प्रथा के अनुसार इस समय कोई किसी से वार्तालाप नहीं कर सकता, गा नहीं सकता, चिल्ला नहीं सकता, अत्यंत आवश्यकता के बिना पर्यटन नहीं कर सकता और किसी पर आक्रमण भी नहीं कर सकता ।

भक्ष्य और भक्षक के बीच में इस समय जो अनाक्रमण संधि बनी हुई है, उसको भंग भी नहीं किया जा सकता। तब मैं भी इस प्रथा की अवहेलना क्यों करूँ?

परंतु, घड़ी ने बताया साढ़े तीन बज चुके हैं। अधूरी मचान को बनाते-बनाते ही सायंकाल का अँधेरा उतर आएगा। फिर समय ही कहाँ रहेगा ?

मन-ही-मन वन-देवता से क्षमा माँग कितने ही बाँस काटकर धरती पर गिरा दिए और उन्हें जैसे-तैसे घसीट-घसीटकर वटदादा के नीचे पहुँचा दिया। पहले की ही तरह उन्हें भी वृक्ष पर चढ़ा लगभग डेढ़-डेढ़ फुट ऊँची एक सुंदर और चार-पाँच फुट ऊँची एक छत तैयार कर दी,

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और बाद में उसे कुशा और पत्तों से छाकर शीघ्र ही एक पर्णशाला बना डाली। चिंतामय नागरिक वातावरण से दूर, सिंहव्याघ्र – रक्षिणी उस पर्णकुटी को देख मेरा अंतस्तल पुलकित हो उठा। वटदादा की अनेक भुजाओं ने उसे चारों तरफ से घेरकर अपनी गोद में सुरक्षित बैठाया हुआ था।

सहसा बाईं ओर के किसी जंगल में काकड़ बोल उठा। मैं थोड़ा घबराया और चारों तरफ देखने लगा। इस असमय में काकड़ की आवाज !… अभी तो शेर के निकलने का समय भी नहीं हुआ।

आज उसे कहीं भ्रम तो नहीं हो गया? मगर दिन तो ढल ही चुका है। सूर्यास्त होने में अब देर नहीं है। ऐसे में मृत्यु के अदृश्य दूत अँधेरी गुफाओं में से निकलकर यदि समय से पहले ही वन भूमियों में पद – संचार करने लग पड़े हों तो आश्चर्य ही क्या है?

थोड़ी ही दूर पहाड़ी पर नाला बह रहा था। उसके किनारे पहुँच, हाथ-मुँह धोकर, ढक्कनदार लोटे में पानी भर जल्दी ही लौट आया और सीधा मचान पर पहुँचा।

भूख जोरों से लग रही थी। दिनभर कड़ी मेहनत जो की थी। पके हुए बेलों और आधा सेर फालसों के अतिरिक्त सेरभर सत्तू और आधा सेर भुने हुए चने भी थे।

सबसे पहले पावभर सत्तू में कानपुरी बूरा और थोड़ा-सा जल मिलाकर आहार यज्ञ का श्रीगणेश किया। फिर तीन बेलफल, बाद में थोड़े-से चने और अंत में फालसों की पूर्णाहुति ।

इस तरह दिनभर की कसर निकाल कुशा के बिस्तर पर चुपचाप लेट गया। कुछ देर तक तो जागता रहा, मगर बाद में कब नींद आ गई, पता न चला।

जब आँख खुली, शायद आधी रात बीत चुकी थी । कब्रिस्तान का – सा भीषण सन्नाटा चारों तरफ छाया हुआ था। कुछ भी नहीं सूझ रहा था। आकाश में तारे तो अवश्य चमक रहे थे,

मगर चाँद नहीं था। सारा ही जंगल भय में डूबा हुआ था। स्वयं वटदादा भी इस तरह सन्नाटा ओढ़े खड़े थे, जैसे इस संसार में उनका किसी से भी कुछ वास्ता नहीं है।

समूचा वृक्ष गाढ़ी निद्रा में नीरव सो रहा था। बस, उस पर केवल एक मैं ही साथी – शून्य, अकेला जाग रहा था।

नाले के किनारे के पत्थरों में से किसी का पद – शब्द देर से सुनाई पड़ रहा था। कोई जैसे बहुत ही धीरे-धीरे चल रहा हो। शब्द धीरे-धीरे पास आता जा रहा था। कौन होगा? मैं सोचने लगा।

तभी उसने स्वयं ही उत्तर दिया। एक ऊँची दहाड़ ने आस-पास की घाटियों को गुँजा दिया। झाड़ियाँ, नाले के मैदान, वटदादा की डालियाँ और उनके साथ ही मेरी मचान तक एक साथ काँप उठी।

चारों तरफ खलबली – सी मच गई। मचान के नीचे से भागते हुए जानवरों की पग-ध्वनियाँ एक साथ सुनाई पड़ने लगीं। उनमें कितने ही हिरण रहे होंगे, कितने ही नील गाएँ।

परंतु चार-पाँच मिनट बाद ही फिर पहले सा सन्नाटा छा गया, जिससे यह अनुमान लगाना कठिन न रहा कि वे किन्हीं सुरक्षित स्थानों में जाकर दुबक गए हैं।

सहसा मुझे ख्याल हुआ, मेरी मचान भी तो धरती से केवल पंद्रह फुट ऊँची है। यदि यहाँ आकर उसकी ‘दृष्टि कहीं ऊपर घूम जाए और मचान पर मुझे बैठा देख आज मेरे शिकार से भूख मिटाने का संकल्प कर वह इस वृक्ष के नीचे ही डेरा डाल दे तब उससे बचने का मेरे पास क्या उपाय है?

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विशेष अवस्थाओं में उसे पंद्रह फुट से भी ऊँची छलाँग मार लेते हुए देखा गया है। वैसे, शेर इस तरह भूख मिटाने के लिए मचानों पर आक्रमण नहीं किया करता ।

हिरनों और नीलगायों को मारकर धरती पर से ही वह अपना भोजन प्राप्त किया करता है। शेर तो भी शेर ही ठहरा। जो बात उसने पहले कभी न की हो, आगे भी वह उसे न करेगा, ऐसा कोई विशेष बंधन तो उस पर लागू नहीं किया जा सकता। इसीलिए मेरी आशंका निर्मूल नहीं है।

हृदय धड़कने लगा। क्षण-प्रतिक्षण व्याकुलता बढ़ने लगी। शेर के देखने का जो चाव मेरे मन में बहुधा बना रहता था, वह अब भय में बदलने लगा।

उसी समय मेरे पास वाली डाल पर से गुटरगूँ-गुटरगूं करते हुए दो जंगली कबूतर धीरे-धीरे पंख फड़फड़ाने लगे। मुझे उनकी उस ध्वनि में मित्रता, आत्मीयता और पड़ोसीपन की स्निग्ध भावना भरी हुई जान पड़ी।

यह जानते हुए भी कि वे अकिंचन पक्षी मात्र हैं, विपत्ति में मेरी कोई सहायता नहीं कर सकते, उनकी उपस्थिति मात्र ने अकेलेपन की मेरी भावना को दूर कर दिया।

देर तक प्रतीक्षा न करनी पड़ी और मेरी धुँध ली आशंका को सत्य सिद्ध करते हुए शेर ने मचान के नीचे आकर मुझे चुनौती दी। पहले एक ऊँची दहाड़, फिर उसके बाद होने वाले छोटे-छोटे गर्जन..

. रह-रहकर सुनाई पड़े। एक बार, दो बार, तीन बार । हृदय थामकर मैंने नीचे झाँका। देखा, वह सामने साकार रूप में उपस्थित है। अंधकार रहने से उसका शरीर और उसकी शक्ल तो स्पष्ट न देखी जा सकी, मगर तब भी उसे पहचान सकने में विशेष कठिनाई

न हुई। दो जलते अंगारों की चमक से मैं यह भी अच्छी तरह समझ गया कि वह ऊपर ही देख रहा है। अर्थात सब मिलाकर छलाँग में अब देर नहीं है।

तभी एक तड़प उठी-एक झपट, एक दहाड़, एक हलचल और एक ताकत भरे पंजे की चपेट ने मचान की

डाल को झकझोर दिया। शेर उछला तो सही, मगर शायद छलाँग का हिसाब ठीक नहीं बैठा और मचान तक न पहुँच, वह फुट-दो-फुट नीचे ही रह गया। मेरा अनुमान है कि यदि छलाँग दो फुट के लगभग और ऊँची रही होती तो उसका पंजा ठीक मेरे घुटने पर ही आकर पड़ता । यद्यपि चारों तरफ बने हुए डेढ़ फुट चौड़े घेरे के कारण उससे भी मुझे किसी तरह की विशेष हानि न पहुँचती ।

प्रयत्न में असफल होकर वह देखते-ही-देखते ओठों में गुर्राता हुआ, डाल पर पंजों की खरोंच देता हुआ, फिसलता हुआ धरती पर जा गिरा । सारा ही काम इतनी जल्दी और अचानक हो गया कि मैं कुल्हाड़ी सँभाले बैठा ही रह गया, उधर घटना का प्रथम अध्याय समाप्त भी हो गया।

धरती पर गिरते ही वह फिर उछला। मगर यह दूसरी छलाँग पहली की अपेक्षा और भी हल्की रही और इस बार शायद डाल तक भी नहीं पहुँच सका। मांस- भोजी होने के कारण इससे अधिक श्रम कर सकना उसके लिए कठिन था। जान पड़ता है, पंद्रह फुट ऊँची दो छलाँगों ने उसे इस तरह थका डाला था कि तीसरी छलाँग उसके लिए असंभव हो उठी थी।

जब पंद्रह-बीस मिनट तक भी तीसरी छलाँग लगाने की नौबत न आई, तो मैंने समझ लिया कि शेर विदा हो है। बहुत ही संतुष्ट भाव से नीचे झाँककर देखा, कहीं भी कोई शब्द नहीं सुनाई पड़ रहा था। मैं निश्चित होकर फिर मचान पर लेट गया

मगर न जाने क्यों नींद न आ रही थी। एक हल्का-सा संदेह अब भी मन में बना हुआ था। कोई जैसे धीरे-धीरे कान में कह रहा था, “विपत्ति अभी टली नहीं है। किसी भी समय फिर भी आ सकती है। सावधान!!’

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आधे ही घंटे में संदेह सत्य हो उठा। शेर वास्तव में वृक्ष के नीचे से हटकर कहीं दूर नहीं गया था। अवश्य ही वह पास ही कहीं किसी झाड़ी में बैठा अपनी थकान मिटा रहा था। उसने एक क्षण के लिए भी अपना संकल्प नहीं बदला था। यह सब मुझे तब पता चला जब एक बार फिर मचान के नीचे हल्की-हल्की पद-ध्वनि सुनाई पड़ने लगी।

वह वटवृक्ष, जिस पर मेरी मचान थी, छह-सात फुट ऊँचे टीले पर खड़ा था, यह पीछे लिख आया हूँ। शेर ने अब तक दो छलाँगें समतल भूमि से ही लगाई थीं, टीले पर चढ़कर नहीं। टीले से मचान केवल आठ-दस ऊँची ही रह जाती थी।

मचान बनाने की अपनी इस भयंकर भूल को मैंने तब समझा जब मैंने देखा, एक ही छलाँग में टीले पर चढ़ आया है। थोड़ी ही देर बाद वे ही दोनों जलते हुए अंगारे फिर दिखाई पड़ने लगे-वह ऊपर ताक रहा है, इस बार रक्षा की संभावना बिल्कुल नहीं।

फुट वह बिजली की तरह मेरे मस्तिष्क में एक विचार आया कि यदि मैं जल्दी ही मचान छोड़ पेड़ की ऊँची डा. लियों पर चढ़ जाऊँ तो अब भी बच सकता हूँ।

मगर शेर ने मुझे ऐसा करने का अवसर ही न दिया। मैं जैसे ही मचान से बाहर निकलने लगा, एक थर्रा देने वाली दहाड़ ने समूचे वायुमंडल को झकझोर दिया और अगले ही क्षण मचान की छत मचमचा उठी। शेर मचान की छत पर था।

मगर एक तो छत फिसलनी और ढलवाँ थी, दूसरे बाँस की पतली खपच्चियों से बने रहने के कारण शेर का बोझ भी नहीं सँभाल पा रही थी, और लगातार मचमचा रही थी।

कब टूट-टाट कर गिर जाए, पता नहीं था। लेकिन इस मचमचाने ने ही मेरे सामने आत्मरक्षा की एक सफल योजना रखी। यदि छत तोड़ दी जाए तो कैसा रहे? परिणाम अनुकूल भी हो सकता है, प्रतिकूल भी। शेर ऊपर चढ़ चुका था और किसी भी क्षण उसके मचान में घुस आने का भय था।

नीचे – ही – नीचे से कुल्हाड़ी के आठ-दस भरपूर हाथ मार मैंने छत को तोड़ डाला और भड़भड़ाकर जैसे ही वह गिरने लगी, चोंके हुए शेर को, मुझ पर आक्रमण करना छोड़, पहले अपनी रक्षा की चिंता करनी पड़ गई।

उसे मेरा ख्याल छोड़, भाग उठने के लिए बाध्य होना पड़ा। देखते-ही-देखते छत गिर पड़ी और उसके बाँस, भाभड़ और पत्ते कुछ मचान पर, कुछ मुझ पर और कुछ नीचे की धरती पर बिखर गए।

एक क्षण की देर न लगी, मैं उछलकर एक ऊँची शाखा पर जा चढ़ा। संभव है, मामले को समझ चुकने के बाद शेर ने बाद में भी कुछ छलाँगें मारी हों, मगर शिकार हाथ से निकल जाने के बाद अपने आपको व्यर्थ ही थकाने के अतिरिक्त अब उन छलाँगों का कोई लाभ न था ।

दिन निकलने की तैयारी करने लगा। पूर्व में प्रभात का अरुण पक्षी चहचहा उठा। शिरीष फूलों की मादक गंध घाटी में महक उठी।

सामने पहाड़ी नाले के कगार पर खड़े होकर सकुशल रात बीत जाने की प्रसन्नता में बारहसिंगा अपनी सहचरी को पुकारने लगा। मैंने देखा,

एक छोटे-से कोटर में से वे ही दोनों कबूतर शायद पति-पत्नी अपनी गर्दनें बाहर निकाले मेरी ओर भोली नज़र से ताक रहे हैं। ” बधाइयाँ, परदेशी ! सैकड़ों बध इयाँ!!” यही शायद वे कहना चाह रहे हैं। मेरा विचार है, रात की विपत्ति से मैं उन्हीं के आशीर्वाद से बच सका। माथा नवाकर मैंने दूर से ही उन दोनों देवताओं को प्रणाम किया।

Manoj Verma
Manoj Vermahttps://hindimejane.net
यह बिहार के छोटे से शहर से है. ये अर्थशास्त्र ऑनर्स के साथ एम.सी.ए. है, इन्होनें डिजाईनिंग, एकाउटिंग, कम्प्युटर हार्डवेयर एवं नेटवर्किंग का स्पेशल कोर्स किया हुआ. साथ ही इन्होनें कम्प्युटर मेंटनेंस का 21 वर्ष का अनुभव है, कम्प्युटर की समस्याओं को सूक्ष्मता से अध्ययन कर उनका समाधान करते है, इन्होने महत्वपूर्ण जानकारियों को इंटरनेंट के माध्यम से लोगों तक पहुँचाने के उद्देश्य से ऑनलाईन अर्निंग, बायोग्राफी, शेयर ट्रेडिंग, आदि विषयों के बारे में लिखते है। लिखने की कला को इन्होने अपना प्रोफेशन बनाया ये ज्यादातर कम्प्युटर, मोटिवेशनल कहानी, शेयर ट्रेडिंग, ऑनलाईन अर्निंग, फेमस लोगों की जीवनी के बारे में लिखते है. साहित्य में इनकी रुचि के कारण कहानी, कविता, दोहा को आसान भाषा में प्रस्तुत करते है।

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