Last Updated on 02/03/2023 by Editorial Team
हिन्दी कहानीः जीजाबाई का सपना – माँ जीजाबाई अपने छोटे से बेटे को रोज कहानियाँ सुनाती थी। वे कहानियाँ ध्रुव, प्रह्लाद और अभिमन्यु की थीं।
भारत के उन महान वीरों और रणबांकुरों की भी, जिनके शौर्य और वीरता ने एक नया इतिहास रचा। वह बालक भी उन्हें सुनता है और माँ से कहता है, “माँ, मैं भी बड़े होकर बड़े-बड़े काम करूँगा। बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़कर देश को स्वाधीन करूँगा।”
“शाबाश बेटे।” माँ के होंठों से निकलता है और आँखों से अपने नन्हे पुत्र के लिए ममता बरसने लगती है। से
“माँ, क्या तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है ?” नन्हा सा बेटा पूछता है। “पूरा यकीन है बेटे, इसीलिए तो तुझे मैं रोज देश के महान गौरव की कथाएँ सुनाती हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि तू एक दिन भारत भूमि को स्वाधीन करके इसके गौरव की रक्षा करेगा।”
महाराष्ट्र में शिवनेरी के पहाड़ी किले में जन्मा था यह वीर बालक । माँ जीजाबाई ने शिवा भवानी से बेटे की कामना की थी, इसलिए बेटे का नाम शिवा रखा गया। शिवाजी के पिता शहाजी ने तुकाबाई मोहते के साथ दूसरा विवाह कर लिया था और उसके साथ वे नई जागीर में रहने लगे थे। जीजाबाई अपने बेटे शिवा को लेकर पूना के निकट एक छोटी सी जागीर में रहने के लिए आ गईं। शहाजी ने दादाजी कोंडदेव को इस जागीर के प्रबंध का जिम्मा सौंपा। दादा जी बड़े वीर और बुद्धिमान थे। उन्होंने पूना में जीजाबाई के
रहने के लिए लालमहल बनवाया और कुशलता से जागीर का प्रबंध सँभालने लगे।
को ध्वस्त दादा जी ने ही मुगलों के खिलाफ लड़ने का अपार साहस भरा। उन्होंने ही शिवा को व्यूह-रचना सिखाई और छापामार लड़ाई से दुश्मन करने की रणनीति भी। अब तो शिवा के भीतर नया जोश जाग गया। देश और जननी के लिए कुछ करने की आकांक्षा करवट लेने लगी।
जैसे-जैसे शिवाजी बड़े हुए उनके भीतर यह संकल्प और भी मजबूत होता गया कि अपना तन-मन-धन सब कुछ समर्पित करके, हमें इस महान देश की स्वतंत्रता, गौरव और स्वाभिमान की रक्षा करनी होगी। देश की रक्षा के लिए जीवन भर लड़ने और अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले वीरों की सेना बनाकर अपना अभियान शुरू करना होगा।
और जल्दी ही उन्होंने ऐसे तरुणों को इकट्ठा कर लिया, जिनकी रग- रंग में देश के स्वाभिमान की लहर हिलोरें लेती थी और वह निरंतर उन्हें देश पर मर मिटने की प्रेरणा देती थी।
जल्दी ही शिवाजी ने अपनी छोटी सी लेकिन बड़ी ही लड़ाकू सेना बना ली। उन्होंने समझ लिया था कि भारतीय जनता को हीनता से उबारकर उसमें आत्मबल का संचार करने और उसे ऊँचे आदर्शों की राह पर ले जाने के लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना बहुत जरूरी है। बस, अब वे प्राण- प्रण से इसी योजना में जुट गए और जल्दी हो सामरिक महत्व के कुछ छोटे पहाड़ी किले उन्होंने जीत लिए ।

इससे उनका आत्मविश्वास और बढ़ गया था। माता जीजाबाई का आशीर्वाद उनके साथ था। बड़े वीर और जुझारू साथी उन्हें मिल गए थे। मन में नई हिलोरें थीं। फिर भला उन्हें आगे बढ़ने से कौन रोक सकता था ?
फिर दादा कोंडदेव का बड़ा ही कुशल मार्गनिर्देशन पग-पग पर मिलता था। दादाजी कोंडदेव पिता के समान ही प्यार से उन्हें युद्ध और राजनीति की शिक्षा देते थे। इससे शिवाजी के भीतर साहस और सूझ-बूझ पैदा हुई।
उन्होंने युद्ध लड़कर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का निश्चय कर लिया। पूना जिले में तब कोली लोग रहते थे, जो लूटपाट और डकैती करते थे। दादाजी ने धीरे-धीरे इन्हें युद्ध और देशभक्ति की शिक्षा दी और यही लोग पहले- पहल शिवाजी के सैनिक बने 1
शिवाजी ने मावले लोगों की ऐसी वीर सेना बना ली जो हर खतरे से सकती थी। वे दुश्मन के किले में घुसकर ऐसी मारकाट मचाते कि वे लड़ भौचक्के होकर भाग खड़े होते और दुर्ग पर शिवाजी का झंडा लहराने लगता। लोग कहते, शिवाजी से जीतना आसान नहीं है। उन्हें तो सचमुच शिवजी का आशीर्वाद प्राप्त है और वही उनकी रक्षा करते हैं।
शिवाजी अपने सैनिकों से बहुत प्रेम करते थे और उनके हर सुख-दुख की परवाह करते थे। इसलिए सैनिक शिवाजी पर जान छिड़कते थे। विजयपुर राज्य की हालत बिगड़ने पर शिवाजी ने अपने वीर सैनिकों की मदद से तोरणा किला जीता और उसका नाम राजगढ़ रखा। कुछ समय बाद दादा जी का देहांत हो गया। उन्होंने मरते समय शिवा को आर्शीवाद दिया, “भवानी ने जो तुम्हें मार्ग दिखाया है, उसी पर चलो। तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा।”
इसके बाद शिवाजी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने कोंढाना किला जीता और उसका नाम बदलकर सिंहगढ़ रख दिया। बाद में बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के पिता शाहजी को कैद कर लिया, तो शिवा को उन्हें छुड़ाने के लिए बीजापुर सुल्तान के साथ संधि करनी पड़ी। बदले में उन्होंने बंगलुरु, कोंढाना और कंदपी के किले सुल्तान को सौंप दिए।
पर कुछ समय शांत रहने के बाद शिवा दूने जोश से अपने अभियान में जुट गए। एक-एक कर अनेकों महत्वपूर्ण किले उन्होंने जीते और अपने राज्य का दूर-दूर तक विकास कर लिया। बीजापुर सुल्तान ने अफजल खाँ को उन्हें परास्त करने भेजा। अफजल खाँ के पास बड़ी विशाल सेना थी। पर शिवाजी जरा भी नहीं डरे।
उनकी सेना का एक-एक वीर सैनिक शेर था, जो सैंकड़ों पर भारी था। दुष्ट और धोखेबाज सरदार अफजल खाँ भी यह बात जानता था कि शिवाजी को युद्ध में हराना उसके बस की बात नहीं है। लिहाजा वह छल और कूटनीति से उन्हें मारना चाहता था। उसने संधि
और बातचीत की पेशकश की। शिवाजी अच्छी तरह जानते थे कि अफजल खाँ के मन में क्या है ?
वह धोखे से उनका वध करना चाहता था। पर शिवाजी भी पूरी तरह सतर्क थे। वे बघनखा पहनकर गए थे। जैसे ही उन्हें अफजल खाँ के बुरे इरादे का पता चला, उन्होंने बघनखे से उनका पेट फाड़ दिया और चतुराई से बचकर निकल आए। इससे शिवाजी की चतुराई और कूटनीतिक कुशलता की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। हर ओर शिवाजी की वीरता और साहस की कहानियाँ फैल गई।
शिवाजी में भारतीय संस्कृति की रक्षा करने और मातृभूमि को स्वतंत्र करने का भाव जगाने वाले समर्थ गुरु रामदास की प्रेरणा और आशीर्वाद शिवाजी के लिए मानो रक्षा कवच बन गया था।
उन्होंने शिवाजी को आशीर्वाद देते हुए कहा था, “तुम देश की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे हो। इसलिए माँ भवानी का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। वे तुम्हारा बाल बाँका नहीं होने देंगी।” और सचमुच बड़े से बड़े खतरों से बचकर वे सकुशल बाहर निकल आए।
हालाँकि शुरू में समर्थ गुरु रामदास उन्हें बड़ी मुश्किलों से मिले। शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास की तेजस्विता के बारे में सुना, तो उनसे मिलने के लिए विकल हो उठे। पर स्वामी रामदास भी उनकी परीक्षा ले रहे थे।
वे उनके सामने आते ही न थे। तब शिवाजी ने प्रतिज्ञा की, “जब तक समर्थ गुरु रामदास के दर्शन न कर लूँगा, तब तक मैं भोजन ग्रहण न करूँगा।”
आखिर शिवा की विकलता जानकर गुरु रामदास ने उन्हें दर्शन दिए। शिवा अपना सब कुछ त्यागकर गुरु जी की सेवा करना चाहते थे। तब गुरु रामदास ने उन्हें प्यार से फटकारते हुए कहा, “तो क्या इसीलिए तुम मेरे पास आए हो? तुम क्षत्रिय हो।
तुम्हारा काम देश और प्रजा की रक्षा करना है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था, उसे याद करो और अपना कर्त्तव्य पूरा करो। “
इससे शिवाजी के मन में नया जोश पैदा हुआ और उन्हें अपना कर्त्तव्य दिखाई देने लगा।
एक बार समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी से कहा, “शिवा, आज तुमसे भिक्षा माँगता हूँ। दे, तू मुझे जो भी दे सकता है ?”
शिवाजी बोले, “गुरुदेव, मैं तो अकिंचन हूँ। मेरे पास जो कुछ भी हैं, वह तो आपका दिया हुआ ही है। स्वराज्य का सपना भी आपने ही मुझे दिखाया। एक छोटा सा राज्य मेरे पास है। इसी को मेरी तुच्छ भेंट या भिक्षा समझ लें।” इतना कहकर शिवा ने अपना सारा राज्य ही एक कागज पर लिखकर उनके दान पात्र में डाल दिया।
इस पर गुरु रामदास ने मुसकराकर कहा, “ठीक है शिवा, आज से यह
राज्य मेरा हुआ। तुम मेरे प्रतिनिधि बनकर इसका प्रबंध सँभालो।” शिवाजी ने तभी से अपने झंडे का गेरुआ कर दिया। उन्होंने घोषणा की कि “यह राज्य गुरु रामदास का है और मैं तो उनका एक सेवक मात्र हूँ।”
औरंगजेब ने शिवाजी की शक्ति को निरंतर बढ़ते हुए देखा, तो महाराज जयसिंह को उन्हें पराजित करने के लिए भेजा। जयसिंह के समझाने पर शिवाजी अपने बेटे के साथ औरंगजेब से मिलने आगरा गए। पर औरंगजेब ने उनका अपमान किया और एक कोठरी मे बंद करवा दिया।
पर इस महान शेर को पिंजरे में कैद करना आसान न था। शिवाजी ने बीमार होने का बहाना बनाया। फिर धीरे-धीरे समाचार आने लगे कि शिवाजी अब स्वस्थ हो रहे हैं। इस खुशी में उन्होंने फलों के टोकरे बाहर भिजवाए। उन्हीं बड़े-बड़े टोकरों में छिपकर वे बेटे समेत किले से निकल आए। फिर घोड़े पर बैठकर बिजली की सी तेजी से अपने राज्य में जा पहुँचे। मुगल सम्राट औरंगजेब हक्का-बक्का रह गया।
जिस समय शिवाजी हिंदू रीति से राजगद्दी पर बैठे, उन्होंने दल-बल के साथ रायगढ़ में जुलूस निकाला। आगे-आगे हाथी पर भगवा झंडा था। यह वास्तव में समर्थ गुरु रामदास के वस्त्र का ही एक टुकड़ा था। शिवाजी ने इसी को प्रतीक रूप में अपना ध्वज बनाया।
कुछ वर्ष बाद ही इस महान देशभक्त योद्धा का निधन हुआ। पर उन्होंने एक शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य की स्थापना करके भारत के गौरव को फिर से ऊँचा उठाने का जो संकल्प किया था, उसे बहुत कुछ अपने सामने पूरा होते देख लिया। उनका स्मरण करते ही मन में वीरता की लहर पैदा हो जाती है।
अगर शिवाजी की तरह ही देश के लिए कुछ करने का भाव हो, तो हमारा देश फिर से अपने पुराने गौरव और वैभव को हासिल कर सकता है, जब कि सारी दुनिया इसे सोने की चिड़िया कहकर पुकारती थी।