Last Updated on 09/03/2023 by Editorial Team
‘चाहे अपने प्राणों को भी दाँव पर क्यों न लगाना पड़े, पर मैं इस देश की धरती की इज्जत पर किसी को बट्टा नहीं लगाने दूँगा। मैं मर जाऊँगा, पर अकबर के आगे सिर नहीं झुकाऊँगा ।
उसे भी तो पता चले कि इस देश के राजपूत कितने पानीदार हैं। यहीं तो मेरे दादा राणा साँगा ने कितनी ही बार दुश्मनों को धूल चटाई। और अब मैं मुगल सम्राट अकबर को यह बता दूँगा कि असली राजपूत वे नहीं हैं
जिन्होंने उसके आगे सिर झुकाकर अपना स्वाभिमान बेच दिया । असली राजपूत तो वे हैं जो अपने रक्त की आखिरी बूँद भी इस धरती पर भेंट चढ़ाते हैं।”
राणा प्रताप मेवाड़ की पहाड़ियों के बीच एक छोटे से पथरीले मैदान में टहल रहे थे, जिसे चारों ओर से घने पेड़ों और विशाल चट्टानों ने ढक रखा था। उनके भीतर तेज अंधड़ चल रहा था ।
और इसका एक कारण यह भी था कि राजा मानसिंह उनसे मिलने आने वाले थे । मानसिंह ने अकबर की स्वाधीनता स्वीकार कर ली थी और अब अकबर के राजनीतिक दूत बनकर ही उनसे बात करने आ रहे थे ।
मानसिंह यहाँ आकर कौन सी बात चलाएँगे और हितैषी होने की आड़ में उन्हें कैसी सलाह देंगे, यह राणा प्रताप पहले ही जान चुके थे । “ओह, कितना कठिन समय है यह।” राणा भीतर ही भीतर बहुत उद्वेलित थे, ”
अकबर ने शिवपुर कोटा, चित्तौड़ जैसे शक्तिशाली किलों पर अधिकार कर लिया है । इस देश की धरती पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं । मातृभूमि सिसक रही है और जिन्हें इस दुख और पराधीनता की घड़ी में
उठकर एक साथ जवाब देना चाहिए था, वे जैसे नशे में धुत्त हैं । लेकिन ऐसे में ही तो एक सच्चे देशभक्त की परीक्षा होती है ।
” चाहे कुछ भी हो जाए, मैं मेवाड़ को अकबर के कब्जे में नहीं जाने दूँगा। मेवाड़ की रक्षा के लिए मैं अपना सर्वस्व बलिदान कर दूँगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि जब तक चित्तौड़ स्वतंत्र न होगा, मैं न राजमहलों में वास करूँगा, न कोमल शैया पर सोऊँगा और न कोई उत्सव मनाऊँगा । चाहे सागर अपनी मर्यादा छोड़ दे, हिमालय गौरव और सूरज तेज छोड़ दे, पर मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोडूंगा। मानसिंह को अभी पता नहीं कि सच्ची वीरता क्या होती है ?
” उसे तो शायद यह भी नहीं पता कि मेवाड़ के पर्वत ही क्यों राणा प्रताप के महल और दुर्ग बन गए हैं। घास की रोटी खाकर भले ही गुजारा करना पड़े, पर मैं मेवाड़ की आन-बान को झुकने नहीं दूँगा। मेवाड़ के स्वाभिमान को बचाए रखने का मेरा युद्ध जीवन की आखिरी साँस तक चलता रहेगा ।”
राणा का क्रोध बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर में ही सेवक ने आकर संदेश सुनाया कि मानसिंह उनसे मिलने आए हैं ।
राणा प्रताप का मानसिंह से मिलने का बिल्कुल मन नहीं था । पर मानसिंह उनके संबंधी थे, इस नाते कुछ तो शिष्टचार निभाना था । इसलिए उनके आने का संदेश सुनकर वे उनसे मिलने के लिए उदय सागर झील तक
आए।
मानसिंह राणा प्रताप से बड़े प्रेम से मिले। फिर समझाया, “मैं आपकी भलाई की ही बात कह रहा हूँ प्रताप । आपको बादशाह अकबर से एक बार भेंट जरूर कर लेनी चाहिए, क्योंकि अकबर उदार तथा हिंदुओं का सम्मान करने वाला है । आपका वह जरूर आदर करेगा।”
” और इस मातृभूमि की भलाई की बात कौन सोचेगा ? कौन इस देश की धरती के स्वाभिमान की बात सोचेगा ? वीरता की महान परंपरा वाली देश की धरती आज बेहाल होकर सिसक रही है। उसके बारे में कौन
सोचेगा ?” कहते-कहते राणा के चेहरे से जैसे लपटें निकलने लगीं।
देखकर मानसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया। फिर भी उन्होंने एक कोशिश और की। राणा प्रताप को अकबर की ताकत से डराना चाहा। उन्होंने अपने स्वर को थोड़ा मुलायम बनाते हुए कहा, “देखो, मेरा काम समझाना था प्रताप, वह मैंने कर दिया। अकबर के बल का अभी आपको अंदाजा नहीं है कि वह क्या कर सकता है ? अगर आप सर्वनाश को ही आमंत्रित करना चाहते हैं, तो फिर मैं क्या कर सकता हूँ ?”
“मैं मृत्यु से नहीं डरता और इस देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने में मुझे खुशी होगी। पर जरा बताइए, अकबर आज अगर इतना बलवान है तो उसे ऐसा बनाने में क्या आपके समर्पणमै कोई भूमिका नहीं निभाई ? अगर सभी राजपूत मिलकर टक्कर लेते, तो क्या अकबर को परास्त करके,
अपनी मातृभूमि को स्वाधीन करना इतना मुश्किल था ? पर अकबर चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, उसे मैं मेवाड़ की धरती को आक्रांत नहीं करने दूँगा, चाहे इसके लिए मुझे जो भी बलिदान करना पड़े। आपको शायद पता नहीं कि मैंने प्रतिज्ञा की है कि चाहे कुछ भी हो जाए,
मैं मेवाड़ को अकबर के कब्जे में नहीं जाने दूँगा। मेवाड़ की रक्षा के लिए मैं अपना सर्वस्व बलिदान कर दूँगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि जब तक चित्तौड़ स्वतंत्र न होगा, मैं न राजमहलों में वास करूँगा, न कोमल शैया पर सोऊँगा और न कोई उत्सव मनाऊँगा चाहे सागर अपनी मर्यादा छोड़ दे,
हिमालय गौरव और सूरज तेज छोड़ दे, पर मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोडूंगा। क्या इसके बाद भी आप कहेंगे कि मैं आप ही की तरह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लूँ और उसका मुसाहिब बनकर रहूँ?”
सुनकर मानसिंह भौचक्के रह गए। फिर उनसे एक शब्द भी नहीं कहा गया। राणा प्रताप को लोग मेवाड़ का सिंह कहते थे। आज उन्होंने जान लिया कि यह सिंह कैसा है और उसकी गर्जना से कैसे भीतर हलचल मच जाती है।
बाद में भोजन के समय राणा प्रताप खुद मानसिंह के साथ भोजन करने नहीं आए तथा अपनी जगह बेटे को भेज दिया। मानसिंह सब समझ गए ।
उन्हें यह अपना अपमान लगा। बोले, “प्रताप, अब तुम्हारा मान-मर्दन न करूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं ।”
प्रताप बोले, “अगली बार तुम्हारा स्वागत युद्ध के मैदान में अपनी तलवार से करूँगा।”
कुछ समय बाद अकबर ने मानसिंह को राणा प्रताप पर आक्रमण करने भेजा। साथ में विशाल सेना थी । हल्दी घाटी में दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ । राजपूतों का जौहर देखकर मुगल सैनिक हक्के-बक्के थे । राणा प्रताप के घोड़े चेतक ने उछलकर मानसिंह के हाथी पर हमला किया। इससे उसे चोट आ गई। जब महाराणा प्रताप लौट रहे थे, कुछ मुगल सैनिकों ने उनका पीछा किया।
राणा का घोड़ा घायल हो चुका था। मुगल सैनिक अच्छा मौका देख, राणा प्रताप को घेर लेना चाहते थे। इनमें राणा प्रताप का छोटा भाई शक्तिसिंह भी था जो अब अकबर से जाकर मिल गया था। शक्तिसिंह ने भी परिस्थिति भाँप ली थी। उसने तेजी से अपना घोड़ा दौड़ाकर मुगल सैनिकों को खत्म कर डाला। और ‘भैया’ कहते हुए महाराणा प्रताप के गले से जा लगा। दोनों की आँखों से आँसू बरस रहे थे। राणा प्रताप चाहते थे कि शक्तिसिंह हमेशा के लिए उनका साथ दे, पर शक्तिसिंह अपनी जगह मजबूर था। उसने चेतक के न रहने पर राणा प्रताप को अपना घोड़ा दे दिया और खुद मुगलों की सेना में लौट आया।
इसके कुछ समय बाद की बात है। एक बार राणा प्रताप की छोटी बेटी को भूख लगी तो महारानी प्रभामयी ने उसे घास की रोटी बनाकर दी। एक वनविलाव उसे छीनकर भाग गया तो भूखी बच्ची रो पड़ी। उसकी यह हालत देखकर राणा प्रताप की आँखों से आँसू निकलने लगे। उसी समय उन्होंने अकबर को संधि – पत्र लिख भेजा ।
उसे पाकर अकबर फूला न समाया । पर पृथ्वीसिंह जैसे राजपूतों को लगा, जैसे हिमालय पृथ्वी पर झुक गया है। उन्होंने कहा, “जहाँपनाह, मुझे तो लगता है कि यह शत्रु का धोखा है। राणा प्रताप की लिखाई मैं भली-
भाँति पहचानता हूँ । ये उनके दस्तखत नहीं हैं। मैं एक पत्र भेजकर उनसे सत्यापन करवा लेता हूँ ।”
इसके बाद पृथ्वीसिंह ने प्रताप के पास जो पत्र भेजा, उसमें वीरता के ऐसे भावों के साथ महाराणा प्रताप को याद किया गया है कि पढ़ते ही वे फड़क उठे । सोया सिंह मानो जाग उठा हो । बोले, “पृथ्वी, तुम्हारे पत्र का उत्तर मैं तलवार से दूँगा।” उन्होंने भामाशाह के दिए हुए धन से फिर से अपनी सेना संगठित की और युद्ध की तैयारियों में जुट गए।
जीवन भर युद्ध करने के बाद भी राणा प्रताप अपनी आँखों के सामने मातृभूमि की स्वतंत्रता के अपने स्वप्न को साकार होते न देख सके। वे मृत्यु शैया पर पड़े थे, पर चिंता देश की थी। उन्होंने मरने से पहले अपने पुत्र अमरसिंह से प्रतिज्ञा करवाई कि वह देश को स्वतंत्र करने की उनकी प्रतिज्ञा को जी-जान से पूरा करेगा।
मेवाड़ का यह सूर्य अस्त हो गया पर उसकी लाली से आज भी आसमान लाल है और उसकी याद आज भी हमारे भीतर सच्ची वीरता की लहर पैदा कर देती है। वीरता की कहानियाँ समाज में ऐसे ही जोश भर देती है।
Conclusion
आशा करते है मचान पर हिन्दी कहानी अच्छी लगी होगी।